hindisamay head


अ+ अ-

कविता संग्रह

नवांकुर

रमेश पोखरियाल निशंक


 

 

 

 

नवांकुर

रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

विनसर पब्लिशिंग कंपनी

देहरादून

संस्करण : प्रथम, 1984

द्वितीय, 2008

मूल्य : Rs. 80/-

प्रकाशक : विनसर पब्लिशिंग कंपनी

प्रथम तल, नैथानी काम्प्लेक्स

120, डिस्पेन्सरी रोड, देहरादून-248001


कवितानुक्रम

अनुभव शेष रहे

तूफानों में

गीत गाऊँ

मंजिलें ढल गई

कुटिया-महल

तिरोधन

नयीं किरण

भटकते अंधेरे में

कर्तव्य

काँटों की गोदी में

हमें इस राह आना

दंशन अंग-अंग का

तरूणों से

सफलता

कौन सी रीति

कंकरीला मार्ग

गीत गा

काश! तुम होते

यौवन

लगती ठोकरें

पहले वह

अनजान

बंधन

पेट हित

संघर्ष

उमंग

उठते हैं जो

बदल गया प्राणी

उभरती चेतना

ज्योति बन

प्रतिशोध

बढ़ती रहोगी

मौन

ममत्व

भारतवासी

कर्म संदेश

कैसे काल बीतेगा

अमर हुए

मूक प्रश्न

शिखे !

लग रहा दीप बुझता

क्यों छिपा ?

आगे सफर

वेदना

राष्ट्र हित

समर्पित

उस जिजीविषा को

जो विपरीत परिस्थितियों में भी

अंकुरित होने के लिए

छटपटा रही है।

- निशंक


भूमिका

''कवित्वं दुर्लभं लोके शक्तिस्तत्रा सुदुर्लभा''

श्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' जी की यह पुस्तकउ नकी दूसरी कृति है। इससे पूर्व वे 'समर्पण' नाम का काव्य संग्रह समाज को दे चुके हैं जिसकी पाठकों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

इन दोनों में दी गई भावना-भरित रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि 'वीर ग्राही' राष्ट्र के प्रति सचेतक है। यह चेतना उसकी मौलिक है तभी तो वह चाहता है।

'उदसी सूर्यी अगादुदिदं मायकं वचः' (अथर्व 1.29.5)

जैसे सहस्रों किरणों वाला सूर्य उदय होता है उसी प्रकार राष्ट्र के लिए मैं भी उदित हुआ हूँ। मेरे द्वारा कृत सभी कार्य राष्ट्र के लिए हों।

ज्ञान प्रत्येक को नहीं केवल प्रवीरण तपरत साधक को ही होता है। साधक माँ सरस्वती की भक्ति विद्वान बनने के लिए सचेष्ट होकर साधिकार कर सकता है।

मैने माँ की भक्ति बड़ी की

जिसने मेरी हर रचना में

मृदृल शब्द की फूलझड़ी की ।

'शब्द कोश' वाणी-पाणी का

माँ का दूध् समझ पी डाला ।

और पाणिनी के सूत्रों का

मंथन कर मधु अर्थ निकाला ।

विरस शब्द आया कोई तो

उसको मैने खड़ी-छड़ी की । (कमल)

साधिकार ऐसा कह सकने में आयु बीतती है जबकि अभी 'निशंक' बाल साधक है फिर भी उनकी रचनाओं में उत्तरोत्तर गामी भाव प्रगति का परिचायक है।

कवि सनातन प्रजा में वाणी का प्रेरक होता है। निशंक में अभी से अपनी इस छोटी सी आयु के बावजूद भी यह चेतना है। इसी चेतना के बल पर कवि ने 'नवांकुर' की प्रथम कविता में ही अपने सहयोगियों को प्रबोधित किया :-

याद मुझे उस कंटक वन की

जिससे होकर निकला हूँ,

विपदानल की ज्वालाओं में

सदा मोम सा पिघला हूँ।

यह शब्दावली सहजता से अंदर निगल देने वाली नहीं है, कवि ने क्रतुमय पुरुष की तरह सहत्रों विष की प्याली पी, अग्नि स्फुलिगों से लड़कर आगे आया तो कंटीली झाड़ियों की चुभन सही है। कवि स्वयं कहता है :-

बाधाओं की चट्टानों से प्रगति मार्ग अवरूद्ध रहा

कौन कष्ट है शेष जगत में, जो नित मैने नहीं सहा?

इसलिए कवि को आशीर्वाद देता हुआ मेरा शान्त्वना की दृष्टि से कथन है :-

'धधकती अग्नि में तपकर ही सोना कुंदन होता है।'

रगड़ पानी में जो गंध दे वही चंदन होता है। (कमल)

राष्ट्रीय परख होने से समर्पण की सहज लोकप्रियता से ही 'नवांकुर' अंकुरित हो गया। कवि ने कविता के दूसरे छंद में सांस भरते हुए अपने मन का ज्वर बाहर निकाला :-

ठोकर ने तो मार्ग दिखाया कंटक पुष्प सुगंध बने ।

तूफान बन गया मृदुतम पर्वत गाते छंद बने ।

कवि को अब विश्वास है कि थके हुए ऊंधते पाथिक को ढांढस बाँधने वाला प्रेरक बनकर कह सकता हैः-

संकट चाहे जितने भी हों, विजयगीत वे बन जाते ।

लोहे की जंजीरों में, मुस्कान कमल की ही पाते ।

दसवीं रचना में कवि का उदात्त साहस सामने आता है। जग-जीवन बढ़ाने वालों को ढांढस देता हुआ बड़ी सुंदरता और साहस से कवि कहता हैः-

कांटों की शैया में जिसने कोमलता को छोड़ा ना।

चुभन पल-पल होने पर भी साहस जिसने तोड़ा ना ।

यहां 'कोमलता' शब्द से कवि का अभिप्राय हृदय की उस तप्त उष्मा से है जिससे दूसरों के लिए स्नेह की बूंदें झरती हैं। कवि अपने स्वजन-मित्रों एवं पाठकों को संघर्ष करने की प्रेरणा देता हुआ कहता है।

जो विकसित संघर्ष में होता कांटों से लोरी सुनता ।

धैर्य सदा ही मन में रखता, विपदा से भी ना डरता ।

निःसंदेह संघर्ष मानव का जीवन दर्पण है। मनुष्य ने माता के गर्भ से ही संघर्ष की वर्णमाला सीखी है। संघर्ष मानव को उठना सिखाता है। जहाँ हम हैं वहाँ से 'आगे बढ़ना' की शिक्षा देता है। अथर्ववेद (मंत्र 8-1-4) कहता हैः-

'उत्क्रायातः पुरुष भाव पत्था।'

हे मनुष्य! संघर्ष कर आगे बढ़। नीचे मत गिर। वेद तो यहाँ तक कहता हैः-

'मृत्योः पड्वीश यव मुंचमानः'

मृत्यु के पाश को भी तोड़ता हुआ आगे बढ़ । यह सब कुछ बढ़ना, उन्नति करना, संघर्ष के बिना संभव नहीं हैं :-

संघर्ष से सांपों को नचाता है सपेरा,

सागर की तरंगों में भी संघर्ष चला है ।

संघर्ष बिना जीने से मरना ही भला है। (क्राँतिदीप)

संघर्ष किये बिना मनुष्य का जीवन ही नहीं चल सकता। निशंक जी ने अपनी कविता में संघर्ष की बड़ी मार्मिक बात कही है। क्योंकि मनुष्य पालने में झूलने या फूलों की शैय्या में सोने नहीं आता। यह संसार कर्मक्षेत्र है और कर्म संघर्ष बिना कभी सफल नहीं होता।

अत्यधिक प्रसन्नता का विषय यह है कि निशंक की पीढ़ी के कवि जिस प्रकार बिना वर्षा के सूखी बाढ़ ला रहे हैं, निशंक ने अपने कवि कर्म को सर्वथा पृथक रखा और मान पाया है। एक नवोदित कवि की प्रथम पुस्तक को इतना सम्मान मिलना बड़े श्रेय की बात है।

कविकर्म बड़ा कठिन होता है, वह दुर्लभ शक्ति से ही संपन्न होता है। 'व्यंग्य-हास्य' लिखने पर निशंक ने अपना मेध शक्ति का दुरूपयोग नहीं किया है। उसने जो पथ अपनाया है वह बोधी जनों का पथ है। संगीत का प्रभाव भी मनुष्य पर पड़ता है। रमेश प्रायः उस भूमि का निवासी है जिसके लिए पुराणकार कह गए हैः-

और इसी भूमि के विभिन्न केन्द्रों में वह कार्यरत भी रहा और अब भी है। वेद ने इस भूमि को सुवर्ण, धन और रत्न की खानों वाला स्वर्ग कहा है।

'निधि विभ्रती बहुध गुहावमु' (अथर्व 12.2.44)

श्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' इसी तरह काव्य साधना में प्रयत्नशील रहे तो श्रेष्ठतम रचना समाज को दे सकता है।

कविता, कल्याणी और आत्मा की तरह अमर होती है जिस कविता से समाज को आत्मबोध हो उसी कविता को आत्मज्ञानी अमर ज्योति कहते हैं।

'समुद्रे अंत: कवयो विचक्षेत'

अर्थात् जीवात्मा को ज्ञानी कवि हृदय की भक्ति (साधना) और लगन शक्ति से देखते हैं। संसार समुद्र के अंदर प्रत्येक पदार्थ को कवि की दिव्य दृष्टि देखती है। जैसे जीवात्मा अनेक भागों से शरीर में आता है और शरीर से पृथक हो जाता है। ऐसे ही कवि सर्वग्राही विषयों को अपनाता है और नारी, वृद्धों की निंदा करना छोड़ देता है, ऐसा करने वाला सुकवि माना जाता है। अतः मैं निशंक जी के कवि को शुभमार्ग पर चलने की कामना करता हुआ उनकी जयवृद्धि का आकांक्षी हूँ।

इति शुभम्।

- कमल साहित्यालंकार

24.02.1984 7, अपर आनंद पर्वत

नई दिल्ली


 

अपनी बात

'समर्पण' के पश्चात् यह अंकुर आपके हाथों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। सच यह है कि 'समर्पण' को मिले आपके स्नेह का परिणाम ही यह नवांकुर है। कविताओं के रस का स्वाद तो सुहृदयजन और प्रबुद्ध पाठक ही बताएंगे, किंतु मेरी दृष्टि में यह कविताएं उस छोटी सी नदी की भांति हैं जो पत्थरों व चट्टानों से टकरा कर बाधाओं से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना चाहती हैं।

कविता रचना न तो शौक है और न प्रयास। यह तो पिघलते हृदय की वह गुनगुनाहट है जो जन-जन के अधरोष्ठों की शोभा और हर कण्ड का हार बनने हेतु व्याकुल है, इसने न विपरीत परिस्थतियों की परवाह की और न ही भयंकर मंडराती काली घटाओं से घिरे रहने की कल्पना। यह आधओं की दीवार तोड़कर किसी लक्ष्य तक पहुँचने हेतु कटिबद्ध है।

पूज्य आचार्य ब्रह्मानंद विडालिया, परमादरणीय ब्रह्मदेव शर्मा, वैद्यरत्न परमानंद जी, श्री मान डॉ. नित्यानंद जी, श्रीयुत्त प्रताप नारायण मिश्र व प्रातः स्मरणीय श्री नारायण चतुर्वेदी जी के आशीर्वाद के फलस्वरूप ही यह भावभरी लहर शब्द की हार बन 'नवांकुर' के रूप में सामने आ सकी।

परम श्रद्धेय कविवर 'कमल साहित्यालंकार' से प्राप्त प्रेरणा एवं अकलुषित हृदय का वह प्यार इस नवांकुर में कूट-कूट कर भरा है।

प्रेरणायुक्त मार्गदर्शन हेतु परमादरणीय डॉ. श्यामधर विवारी एवं अग्रज डॉ. नंदकिशोर ढौंड़ियाल 'अरूण' जी को मैं जीवन भर नहीं भुला सकता।

जिनके स्नेह से यह सिंचित हुआ, वयोवृद्ध पत्राकार श्री भैरवदत्त धूलिया, श्रद्धेय श्याम जी, मा. राजेन्द्र जी, आदरणीय सुभाष कुमार (आई0ए0एस0), साहित्यचेता श्रीमान मदन सिंह कुंवर (आई0ए0एस0), ब्रिगेडियर लक्ष्मण सिंह जी, मित्रा नाकेंद्र ध्यानी 'अरूण', सम्यति 'संध्या' माननीय विनोद जी, श्रीयुत विद्यादत्त जी और तरूण भाई का मैं हृदय से आभारी हूँ।

आदरणीय अग्रज मनोहर कांत ध्यानी, श्रीयुत भक्त दर्शन जी, श्री शशीकांत जी, मा. तेजपाल सेठी व श्री दिलीप सिंह जी की आत्मीयता के लिए मैं कृतज्ञ हूँ।

सुंदर मुद्रण एवं अमूल्य सहयोग हेतु प्रिय अरविंद शर्मा और अनिल जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। अपने सभी मित्रों व गुरूजनों का स्मरण करते हुए ''नवांकुर'' की पूर्णता की आपके हाथों सौंप रहा हूँ।

बसंत पंचमी रमेश पोखरियाल निशंक

7 फरवरी, 1984

 

अनुभव शेष रहे

याद मुझे उस कंटकवन की,

जिससे आगे निकला हूँ।

विपदानल की ज्वालाओं में,

सदा मोम सा पिघला हूँ।

लघु जीवन के सघन विपिन,

कदम-कदम पर शूल मिले।

अरे ! लता पर इस यौवन की,

कभी न सुख के फूल खिले।

बाधाओं की चट्टानों से,

प्रगति मार्ग अवरूद्ध रहा।

कौन कष्ट है शेष जगत में,

जो नित मैंने नही सहा।

चित्रा तुल्य वे सब घटनाएं,

अंकित हैं इस मानस में।

जीवन का सर्वस्व समर्पित,

और अश्रु हैं आनन में।।

स्मृति शेष हैं घटनाएं सब,

जर-जर कर इस जीवन को

अब बस अनुभव शेष रहे हैं,

इस झुलसाते यौवन को।

तूफानो में

 

हैं बढ़े नित-नित ही आगे,

ठोकर काँटे पाये हैं।

तूफान मिले चट्टानों में भी,

कभी न पीछे आए हैं।

ठोकर ने तो मार्ग दिखाया,

कंटक पुष्प सुगंध बने।

तूफान बन गया भृदुतम स्वर,

पर्वत गाते छंद बने।।

संकट चाहे जितने भी हों,

विजय गीत वे बन जाते।

लोहे की जंजीरों में,

मुस्कान कमल की ही पाते।।

अब तक ये पग जहाँ पड़े हैं,

अमिट छाप बन छाये हैं।

चिन्ह छोड़ते बढ़ते आगे,

देख न पीछे आए हैं।

गीत गाऊँ

 

मुक्त हो मैं गीत गाऊँ,

पास में यम के न गाँउ।

लक्ष्य हित तोड़े हैं बंधन, दूर कर दूँ आज भय को।

आत्मा अक्षय सदा है दूर कर दूँगा मैं क्षय को।

आपदा की ये घटायें, क्षितिज पर मंडरा रही हैं।

प्रलय की पागल बलायें, भू जगत थर्रा रही हैं।

रोकर ये सब घटायें, मोड़ दूंगा मैं प्रलय को,

बढ़ चलूंगा हर दिशा में, छोड़ दूंगा मृत्यु भय को।

घोर तम आगे खड़ा जो, मार्ग रोके व्यर्थ ही है,

श्रम में आलस्य आना, आपदा का अर्थ ही है।

तेज ले प्रकाश बन मैं, चीर दूंगा घोर तम को,

मुक्त हो मैं गीत गाऊं, छोड़ दूंगा आज गम को।

मंजिलें ढल गई

(1)

बाल तो वही है किंतु, शक्ति सारी खो गई,

हर प्रभा नवीन आ, निराशता को बो गई।

हैं सभी एक पर, एकात्मता नहीं रही,

पुनीतता के कर्म छोड़ स्वार्थ की नदी बही।

आज भी दिवस वही, पर रंग ही बदल गया,

है कर्मशील खो गया, अकर्मशील पल गया।।

सत्यभाव सहिष्णुता की, सब ही आशा खो गई।

हर प्रभा नवीन आ, निराशता को बो गई।।

(2)

पुष्प की तो गंध वही, नाक ही बदल गई।

स्थान तो वही है किंतु, सब मंजिलें ही ढल गई।।

मनुष्य तो वही है किंतु, ये भाव है बदल गया।

हृदय पटल है वही, आज मन दहल गया।।

सत्य मधुरता की, भाषा ही सब खो गई।

हर प्रभा नवीन आ, निराशता को बो गई।।

कुटिया-महल

कुटिया-महल में न कोई सुखी हैं।

देखो जिधर सब दुःखी ही दुःखी हैं।।

आंखों में अनगिन आंसू पड़े हैं।

पग-पग में देखो दुःखी ही दुःखी हैं।

पनपना जिन्हें था वे गहरे दबे हैं।

आशा को छोड़े ये नीरस पड़े हैं।

इन अश्रुओं से नदी भर चुकी हैं।

देखो जिधर सब दुःखी ही दुःखी हैं।।

कहाँ छुप गए हैं चेहरे वे हंसते।

क्यों आज लगते हैं शीघ्र डंसते।

अंदर से रोते हैं बाहर से हंसते।

सब जा रहे हैं दलदल में फंसते।

पवन कैद बैठी श्वासें रूकी हैं।

देखो जिधर सब दुःखी ही दुःखी हैं।

तिरोधान

आ चुका नव सूर्य अब ढलने लगा है,

धैर्य खोता श्रम भी चलने लगा है।

वृक्षों ने शीत छाया छोड़ दी है,

तूफान ने सुंदर सड़क ही तोड़ दी है।

उष्ण लू से महल संग कुटिया फुकी है,

वेदना से श्वास की गति भी रुकी है।

भावना तो तपन में ही झुक चुकी थी,

घुटे दम से सत्यवाणी रूक चुकी थी।

यत्न कर अब अंत ही तो रह गया है,

जो बचा था कष्ट ही सब सह गया है।

नयीं किरण

फैला ये अंधियारा जग में, मिलकर दूर भगायेंगे,

नयी किरण हम हैं आशा की, नूतन दीप जलायेंगे।

हर घर में एक दीपक होगा,

जो जलना सिखलाएगा ।

पग-पग पर फैले स्वार्थों को,

जो मन से ठुकरायेगा ।

स्वार्थों को ही ठुकरायेंगे हम, गीत त्याग के गायेंगे ।

नयी किरण हैं हम आशा की, नूतन दीप जलायेंगे ।

कल आंगन में जग नत होगा,

उसके ही उजियारे हम,

त्याग, ज्ञान और देशप्रेम की,

न्याय मूर्ति हों सारे हम।

जीवन की राहों में हम सब, सुंदर फूल खिलायेंगे।

नयी किरण हैं हम आशा की, नूतन दीप जलायेंगे।

भटकते अंधेरे में

न होता काश! मानव तो,

कहीं भटकन नहीं होती ।

न युग होता न मैं होता,

कहीं तड़पन नहीं होती ।।

अगर देखे न होते फूल,

तो कांटे ही भले लगते ।

कहाँ दुश्मन बुरा कोई,

सभी प्रिय बन गले लगते ।।

अगर सूखे न होते पुष्प,

हर पौध फला लगता ।

कभी सूरज न दिखता तो,

अंधेरा ही हमें लगता ।।

नवजीवन प्रभा आती,

शिक्षा नित-नित तो जलती ही ।

भटकते क्या अंधेरे में,

न खलती शाम ढलती ही ।।

कर्तव्य

दीपक बन प्रकाश फैलाना था जिन्हें वे बुझ गए हैं ।

हैं भटकते घोर तम में, हम सिद्धांत बनायें सब नए हैं ।।

हाथ-मन-मस्तिष्क पर भी, स्वयं नहीं विश्वास है ।

मात्रा कहते कर न सकते, अर्थ यदि नहीं पास है ।।

क्षण में ही अधिकार चर्चा, कर्तव्य पंक्षी बन गया है ।

निज काम से जो दूर भागे, व्यर्थ हो वह जन गया है ।।

और यह भी सत्यता है, हार बैठे हैं स्वयं से।

पास भी तो कुछ नहीं है, खो चुके सब कुछ ये गम से ।।

काँटों की गोदी में

 

काँटों की शैय्या में जिसने,

कोमलता को छोड़ा ना,

चुभन पल-पल होने पर भी,

साहस जिसने तोड़ा ना ।।

जो विकसित संघर्ष में होता,

कांटों से लोरी सुनता ।

धैर्य सदा ही मन में रखता,

विपदा से वो डरता ना ।।

पास आ मुझे है कहता,

जीवन में हर कष्ट सहो ।

संकट की इन घड़ियों में,

आगे बढ़ते सदा रहो ।।

हमें इस राह आना

वह पड़ा था उस सड़क पर,

गुजरते मानव वहाँ से ।

तनिक ना दुःख दर्द होता,

सभी मोड़े मुहँ वहां से ।

सोचना था मूक सबका,

क्या हमें इस राह आना ?

ये गया पर हम सदा हैं,

हमें तो ना कहीं जाना ।

किंतु सोचो क्या कभी,

उसको पता था जा रहा हूँ?

मस्त था सोचा मैं जीवित,

और जीवन पा रहा हूँ ।

दंशन अंग-अंग का

 

प्रतिपल जहर उगलते हैं जो-

वे अमृत को क्या पहचाने,

दंशन कर पर अंग-अंग का,

मृदु मानस को क्या जानें।

नहीं ज्ञान इसका इनको-

है गरल सुधा से दब जाता।

करें निरंतर कोटि यतन-

विस्तार कभी न कर पाता।

तरूणों से

 

तरूणों उठो! सुनो अरे,

शंख गूंजता आ रहा है ।

देश के दुःख दूर करने,

यह जगाता आ रहा है ।

नवीन रक्त को ही शंख,

है चुनौती दे रहा ।

बिगड़ी नैतिकता को,

सुधरता वह आ रहा है ।

हटा अशांति दुःख को,

शांति सुख है ला रहा ।

अमोघ सौख्य शांति बन,

देख लो वह ला रहा ।

तरूणों उठो आगे बढ़ो,

रक्त उर्ज्वशित करो ।

प्रेरणा के इन क्षणों में,

गुंजार मन में तुम करो ।

सफलता

 

चाहता हूँ तुम बढ़ो-

और सब शक्ति दो-

धरा-धरा गगन सभी से-

प्रेरणा प्रातीप्य लो।।

अग्नि-ज्वाला चाहे हो-

कूद इसमें भाग लो।

कर कठिन परिश्रम को ही-

बन सफल परिणाम दो।

जो छिपा पौरूष स्वयं में-

तुम उसे भी जान लो।

दृढ़ता से यदि बढ़े तो-

है सफलता मान लो।

कौन सी रीति

 

मुझको तुम यह बतला दो,

सागर में इतना जल क्यों है?

लहराता उनाता रहता,

नदियां करती कल-कल क्यों है?

यह भी तुम मुझको बतलाओ,

क्यों न नीर नदियाँ पीती?

अन्यों को ही जल देती है,

कहाँ लिखी है ये रीति?

पेड़ फूल और फल हैं देते,

किंतु स्वयं नहीं खाते हैं।

दूसरों को सब फल देकर,

वृक्ष स्वयं क्या पाते हैं?

कंकरीला मार्ग

 

देखा उन राहों को मैंने,

कंटक थे जिनके परिधान ।

मैं बढ़ता गया क्षण न रूका,

कांटे करते मेरा मान ।

कंकरीला ये मार्ग गजब का,

गिरा तो थामा कांटो ने ।

बाध्य किया बढ़ते रहने को,

मिलती क्षण-क्षण डांटों ने ।

गीत गा

घनघोर अंधेरा मिटा देख लो,

उषा सुनहरी आयी है ।

सबसे पहले उठ खग वृंद ने

गीत प्रभाती गायी है ।

ये सब तेरे तू सबका है,

इन्हें कंठ लगा उठ प्यार कर ।

सोया क्यों उठ जा तू भी,

उठते गीत गा चमत्कार कर ।

जो निशि को मुरझाए थे,

वे मंद पवन से टकराये ।

सुप्त अवस्था त्यागे सब ही,

फिर से नवजीवन पाये ।

शेष मुरझाए पुष्प जो उनको,

उन्मुक्त कंठ से प्यार कर ।

सोया क्यों उठ जा तू भी,

उठते गीत गा चमत्कार कर ।।

भौंरे भी फूलों के अंदर,

मधुर गुंजार कर आए हैं ।

घूमते फूल-फूल पर,

मधु को सब मिल लाए हैं ।

मंद मधुर गुंजार लिए तू,

नूतनता का प्रचार कर ।

सोया क्यों उठजा तू भी,

उठते गीत गा चमत्कार कर ।

काश! तुम होते

कहना है स्तर से ऊंचा-

स्वयं हो गहरे पानी में।

मधुर दिखावा करते हो-

जहर उगलते वाणी में।

उपदेश कहां वे कम होते-

जो घंटों तक भी चल जाते।

स्वयं पता तुमको भी है-

जो सुनते भटकन को पाते।

कर्तव्य नहीं अधिकार तो है-

जो चाहे कर सकते हैं।

हित अहित मतलब ही क्या-

जहर गले भर सकते हैं।

कथनी करनी एक ही होती,

काश पूर्ण यदि तुम होते।

सभी प्रेरणा में ही बहते-

हृदय हजारों न रोते।

यौवन

फूलों की तरह खिलता रहे-

गंध दूर तक दे जायें।

जग को भी हर्षित कर सके

ऐसे शुभ गुण सब पायें।

चाह नहीं खिलने की हो-

क्यों न कली ही चढ़ जायें।

आज चाहिए जो वसुध को-

ऐसे अमित गुण सब पायें।

जीवन सुखमय तब ही है-

खुश हर मानव हो जायें।

पुष्प वही है यौवन पल्लव-

स्वार्थ तजे कंटक पायें।।

लगती ठोकरें

ओह! बस अब दूर हट जा,

तोड़ न अहसास को ।

रोकता मधुमास को क्यों,

छोड़ दे इस वास को ।

शेष है पथ आज सारा,

और क्या गाती सुपिक ।

गान मधुमय कर रहा जो,

छोड़ दे तू। वह पथिक ।

ठोकरें लगती चरण में,

तोड़ न प्रत्येक मंजिल ।

हर सुबह क्षण में ही संध्या,

आग से न सेक रे दिल ।

आज सावन लौट आए,

बिन बुझाए प्यास को ।

रोक न बहार सावन,

छोड़ दे इस वास को ।

पहले वह

हरी डाल पर बैठी यह,

मंद-मंद मुस्काती थी ।

सुंदर मीठे गीत बनाकर,

पास मुझे बुलाती थी ।

सुनता था मैं एक टक होकर,

गीत कृष्ण की प्यारी से ।

पहले वह फिर मैं भी गाता,

गुन-गुन बारी-बारी से ।

दुःख तो मुझको तब होता था,

पास जभी उसके आता ।

दूर नहीं सुनता वाणी को,

पास न मैं उसको पाता ।

अनजान

मस्त था वह मुक्त लगता,

और हँसता खेलता ।

बढ़ रहा क्षण काटता,

और जीवन झेलता ।

देख ये कितनी विषमता,

नेह से पोषित हुआ ।

खेलते थे साथ जिसके,

आज वह शोषित हुआ ।

विज्ञ है ना स्वार्थ से यह,

पेट इनका है बड़ा ।

लक्ष्य है कुछ बढ़ सही तू,

धत हम करते कड़ा ।

बंधन

ये दुनियां के बंधन पगले,

फंसते ना फंस जाते हैं ।

नहीं सोच की आवश्यकता,

भाव यकायक आते हैं ।

फिर अब पछताता क्यों रे,

बंधन में ही मार्ग निकाल ।

सोच न अब इधर उधर की,

सृजना ही कर त्रिकाल ।

पेट हित

बैठकर मैं पढ़ रहा था ।

श्वेत हिमकण पढ़ रहा था ।

बीच में प्रिय कूदती थी ।

पेट हित वह जूझती थी ।

फरफर्रा वह गिर रहा था ।

दूर कोई जा रहा था ।

देख उसको उड़ पड़ी थी ।

किस ओर जाने मुड़ पड़ी थी ।

रे पथिक! समझा नहीं क्या ?

बच्चे थे भूखे पंखिनी के ।

और भयंता थी उभरती,

हृदय में उस अंकिनी के ।

संघर्ष

संग में रहते समझ सका न,

छोड़े इसको भुला गई ।

स्वयं चली है मुक्त भाव से,

केवल तन की सुला गई ।

महसूस कठिन किया उसने,

पिंजरे में नित बंधन को ।

किंतु रही फिर भी घुट-घुटके,

बस यह तन मंथन को ।

क्षण-क्षण करके वर्ष बिताए,

कर संघर्ष ये जल गई ।

सहन हुआ न इससे इतना,

अवसर देखे निकल गई ।

उमंग

ला रही उमंग ले गए विकास को।

नीलाभ कर रही अनंतमय प्रकाश को।

उमंग रंग नवीन ला,

निज लक्ष्य है दिखा रही ।

आदर्श निज तरंड की,

पवित्रता सिखा रही ।

मुरझे पड़े जागृत कर, नए प्रकाश को ।

आ रही वह ले सबल नए विकास को ।

नए ही शब्द भाव नव उमंग ला रही ।

मार्ग भी नया बना दिशा-दिशा दिखा रही ।

हृदय कमल में अकिंता ।

स्वशक्ति आके कर रही ।

सृजन सुभग वह कर रही रोक कर विनाश को ।

आ रही वह ला रही नए विकास को ।।

उठते हैं जो

जो हैं पिछड़े जो दुःखी हैं,

हम उन्हें भी साथ लें ।

जो हैं गिरते उठ न सकते,

पकड़ उनका हाथ लें ।

रे! प्रकृति का यह नियम,

गिरना सभी को है यहाँ ।

उठ खड़ा हो गिर न जाना,

चरण हैं बढ़ते जहाँ ।

ठोकरें पग-पग लगी हैं,

साथ मिलकर सब चलें ।

अटल रहना काम प्रथम,

तूफाँ न जाने कब मिलें ।

बदल गया प्राणी

आज गगन भी डोल उठा है,

डोल उठी है धरती ।

खाई इतनी पड़ी हुई है,

सहज नहीं यह भरती ।

कौन किसी का है रे अपना ?

कौन बना मेहमान यहाँ ?

भूल गया प्राणी पलभर में,

श्रेष्ठ देव पहचान यहाँ ।

तन-मन-धन से हुआ खोखला,

फिर क्यों करता है अभिमान ।

आंखों में सच्चाई दिखती क्या,

नहीं सत्य सुनते हैं कान ।

कितना बदल गया प्राणी,

इन्हें समझ बैठा निज शान ।

सब कुछ से तो हुआ खोखला,

व्यर्थ करे मानव अभिमान ।

उभरती चेतना

शक्ति हो जब सुप्त सारी,

स्वजन का दल-बल बढ़ा हो ।

रक्त से लतपल बना जो,

पीत तन पर ही चढ़ा हो ।

वीरता कायर बनी हो,

श्रेष्ठता भी लुप्त सारी ।

निज पराये बन गए हो,

दुश्मनी या भाईचारी ।

न्याय यदि आंख मूंदे हो,

और गूंगा सत्यवादी ।

राष्ट्र बन हो आत्मविस्मृत,

चलता रहा नित-नृत्यवादी ।

तब उभरती चेतना,

जो विकट संघर्ष करती ।

तोड़ती अन्याय को ही,

उत्कर्ष में है हर्ष भरती ।

ज्योति बन

संकटों का चक्रव्यूह यह,

तोड़ना उसको अभी है ।

प्राप्त कर लेंगे विजय जब,

श्वांस तो लेनी तभी है ।

ये अतीत स्वयमेव का,

जो गौरव की गाथा है ।

स्वीकार हमें करना है जो,

वह कसम धरा की खाता है ।

तिल-तिल जला स्वयमेव को,

प्रकाश फिर भी हम करेंगे ।

उस क्षितिज के घोर तम में,

ज्योति बन हम तम हरेंगे ।

प्रतिशोध में

वह भटकता दौड़ता ही जा रहा था।

होंठ सूखे गाल गीले,

मात्रा केवल साथ भय था

पवन को ही पा रहा था।

भावना प्रतिशोध की थी।

दृश्य भीषण आंख में था।

कान आहों से भरे थे।

क्रोध की ही घूँट पी थी।

जो भी दिखता शत्रु लगता

कौन था जिससे कहे वह

वेदना मन की सताए

आदमी भी भूत लगता

जिसको देखे और भगता।।

यह अग्निसम प्रतिशोध में,

ही बढ़ गया था

और पहुंचा आग से बढ़

हिम शिखर की गोद में।

बढ़ती रहोगी

आवाज किसको दे रही हो?

और क्या तुम गा रही हो?

दूर से मैं तुम्हें देखता।

ज्ञान तुमसे सीखता।

तुम तो बन आती हो ऐसी।

नयी सुंदर दुल्हन जैसी।

क्या नहीं तुमको यह दिखता?

थक गया मैं गीत लिखता।

तुम सदा बढ़ती रहोगी।

जल्द धरा में बहोगी।

क्या कभी हम मिल सकेंगे।

पास आओ भी कहेंगे?

मौन

वह खुशी आज उसको मिल गई।

देखते मुस्कान गुन-गुन खिल गई।

देख उसको प्रश्न मन में आ गए।

कौन है ये जो खुशी बरखा गए।

मुँह बनाये बैठ तिरछे हो गए।

और सोचे कुछ समय तक खो गए।

पूछ बैठा मैं इसे वह कौन है?

देख तुझको हो गया जो मौन है।

मूक में उत्तर मिला वह भी वही।

आप जैसा मौन था वह भी कभी।

ममत्व

प्यार भरा अंतरम में,

मुँह में दाना भरती थी ।

उनको ही थी सदा खिलाती,

स्वयं ग्रहण कब करती थी ?

जीवन दाना ढूँढे चहचह,

कहती बच्चों आ जाओ ।

चोंच भर किया इकट्ठा,

आओ तुम सब खा जाओ ।

हृदय वीड़ी का होता गद्गद,

अपनत्व उसकी हर रग में ।

कैसी यह चिन्ता थी इनकी,

दूर न रहती पग-पग में ।

भारतवासी

ईश्वर की है देन प्रिय भारत,

वेद कहे हैं स्वर्ग समान ।

सुंदरता क्या दीखे इसकी,

जो उड़े नित्य देव विमान ।

कहीं शीत है गर्मी वर्षा,

और हिमालय हिम का पात ।

गढ़वाली बंगाली ही क्या,

भारत में तो जात ही जात ।

गुजराती तो उड़िया भी है,

कहीं तमिल कहीं मद्रासी ।

ये पंजाबी-कश्मीरी हैं,

पर सब हैं भारतवासी ।

खान-पान तो अलग-अलग है,

और वेश है भिन्न यहाँ ।

रहन-सहन तो अलग-अलग पर,

भारत बोले एक जहाँ ।

कर्म संदेश

स्वर्ग भूमि से ऊँचा माथा,

शरदऋतु जिसमें रहती है ।

वही देश मेरा भारत,

गंगा यमुना बहती है ।

चार वेद जो इस धरती पर,

ज्ञान विश्व को देते हैं ।

गीता के तत्वों को पढ़-पढ़,

वेष कर्म का लेते हैं ।

पहरा देता स्वयं हिमालय,

दक्षिण में सागर जिसके ।

उत्तर में तो सोमनाथ हैं,

ब्रहमपुत्र पूरब उसके ।

कैसे काल बीतेगा

ये तो पीड़ित करने आया,

निर्दयता दिखाने भी ।

लौट-लौट कर आता है ये,

वे न घर हैं जाने भी ।

कैसे अब ये काल बीतेगा,

कैसी आयी अब फुहार ।

आँख खोलते काँटे दिखते,

ऋतु लेंगे ये पैनी धार ।

न ये ऋतु आती यदि प्रियतम,

याद मुझे क्यों आती ।

व्यस्तता में मूक रहती,

ये अश्रु धर क्यों लाती ।

अमर हुए

था मंद-मंद ही पवन का झोंका,

चंदन वन की महक उठी ।

नदियाँ कल-कल छल-छल करती,

चिड़िया भी थी चहक उठी ।

एकांत-शांतमय यह घर था,

पर कोटि-कोटि जन राह लगे ।

यौवन बाल परिवार वृद्ध सब,

शिशु वे सब जो थाह लगे ।

दूर-सुदूर से आते हैं सब,

अनुभव सुख का ही करने ।

समूह रूप बन आते रहते,

उर में पावनता भरने ।

हे माँ तेरी महिमा अनुपम,

पूत सपूत अब एक हुए ।

कूट भरी श्रद्धा न्यौछावर,

अमर आज हर वीर हुए ।

मूक प्रश्न

सब गए रे मैं अकेला रह गया ।

बहाव आया जोर, उसमें बह गया ।

मूकता निस्तब्ध्ता है खल रही ।

अग्नि में हृदयकली भी जल रही ।

शब्द तो हर शत्रु जैसा बन गया ।

खा रहा हो व्यक्ति वैसा बन गया ।

निस्तब्ध्ता की राह में ये कौन आया ?

मूकता के प्रश्न थे उसने क्या पाया ?

शिखे !

गोद बिठाये हो अनगिन को,

श्वेतांबर मस्तक डाले ।

पांव पखारे हैं नित जलधर,

जो भीषण तूफाँ टाले ।

वटवृक्ष तो तुझ पर ही,

कामधेनु तुझको कहते ।

चाहे पशु हो चाहे पक्षी,

नर-नारी तुझ पर रहते ।

हे शिखे ! प्रसन्न ही रहती,

खेल खिलाती आँचल में ।

सुख-दुःख तुझको एक जैसा,

नहीं बदलती पल-पल में ।

लग रहा ये दीप बुझता

याद आते भाग जाता ।

था खड़ा उसको न पाता ।

क्या करें कुछ भी न समझा ।

लग रहा है दीप बुझता ।

किंतु भागा दूर तक तू ।

हो गया था चूर तक तू ।

लग रहा ये अब न मिलती ।

बात क्या हमसे ही झिलती ।

और गति तो बढ़ गई थी ।

झाड़ियों में चढ़ गई थी ।

जोश में तो खेत गिनते न बने थे,

पर मार्ग कंटक ही घने थे ।

कहाँ है क्या ? गलत क्या सही ?

मात्र इस मन में वही ।

खो गई थी भूल मेरी ,

बस गोद में थी जो कि तेरी ।

क्यों छिपा ?

डगमगाती आज मंजिल,

जल रही अनगिन कड़ी ।

खून के आँसू बहाये,

मूक भारत माँ खड़ी ।।

स्वार्थ के दल-दल फंसे जो,

और फंसते जा रहे ।

हाथ पर ये हाथ रखकर,

और हंसते जा रहे ।।

टीस है मन में क्या थोड़ा ?

नींव के पत्थर गिरे ?

देखते हैं बस तमाशा,

जो दबे पत्थर घिरे ।।

कौन पत्थर उठ लगाये !

कौन कूदे आग में,

क्यों छुपा बैठा है रे जन !

रक्त रंजित दाग में ।।

आगे सफर

जिसको बुलाया वह भी आया,

और संग चलता रहा ।

कर्म की धरा में मेरे,

साथ वह बहता रहा ।

वह रूका हरगिज नहीं,

स्थान मेरा छोड़कर ।

चल दिये दोनों सुपथ पर,

लहर को भी मोड़कर ।।

मिलती गई जिस पल लहर,

उसको भी दी हमने बहर ।

कौन जाने मिल पड़े,

आगे कहीं हमको सफर ।।

वेदना

नहीं कोई बाधा तुम्हें रोक सकती ।

है कौन शक्ति जो तुमको पकड़ती? ।।

क्षमता थी सोयी जगाया उसे है ।

जनहित गुणों में समाया इसे है ।।

व्यवहार में सब गुणों को दिया है ।

झंकृत सबके हृदय को किया है ।।

लगता है तुमने मधुर रस पिया है ।

हर कार्य तुमने मधुर ही किया है ।

कहाँ कष्ट तुमको कभी गम हुआ है ।

संघर्ष हर पग नहीं कम हुआ है ।

अदभुत बनी हो सभी जानते हैं ।

भावी निधी को तुम्हें मानते हैं ।।

मन में समायी तुम वेदना हो ।

बढ़ते मगों की तुम प्रेरणा हो ।।

राष्ट्र हित

कुटिलता की नीति तजकर,

राष्ट्र हित जूझा करें ।

आज तन-मन और धन से,

राष्ट्र की पूजा करें ।।

रोते नहीं हँसते हुए ही,

पूर्ण यौवन दान दें ।

प्रौढ़ता परिपूर्ण जीवन,

त्याग का परिधान लें ।।

युग-युगों से याद करनी,

सैकड़ों घटना हमें ।

राष्ट्र मंजिल देखनी है,

अब नहीं बंटना हमें ।।

जो सिंहासन अरि गुड़ों से,

उच्च हमने था किया।

काल गति ने घेर डाला,

और हमने आज दिया ।।

आज वह टूटा सिंहासन,

हम सजायें त्याग से।

गीत गाते बढ़ चलें हम,

मातृ भू अनुराग से ।।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ